श्रीकृष्ण का नीलमाधव रूप (Part 2)द्वापर युग का समापन होकर अब कलयुग की शुरुआत हुए कुछ वर्ष बीत चुके थे। निषाद राज विश्वावसु का जन्म सबर कुल में हुआ था। वह उत्कल राज्य में एक आदिवासी कबीले के सरदार हुआ करते थे। एक दिन वन में शिकार करने के लिए निकले विश्वावसु देर रात तक भी वापस घर नहीं लौटे, किसी अनहोनी की आशंका से उनकी पत्नी, बेटी और कबीले के बाकी साथी कांपने लगे। कई दिनों तक विश्वावसु की खोज में आदिवासी सैनिकों ने दिन रात एक कर दिए परंतु उन्हें कहीं पर भी अपने राजा का कोई पता नहीं मिला। थक हार कर सब उदास मन से विश्वावसु की कुशलता की कामना कर प्रार्थना करने लगे।
जंगल में एक भालू का पीछा करते करते भटक चुके थे विश्वावसु। हालांकि वह कई बार इसी वन में शिकार करने हेतु आया करते थे, लेकिन आज पता नहीं क्यों उन्हें बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था। शायद ही कोई मायावी शक्ति आज उन्हें इस जंगल से बाहर नहीं निकलने देना चाहती थी। अंत में बहुत कोशिशें करने के बाद वह थक हार कर एक पेड़ के नीचे विश्राम करने लगते हैं। कुछ देर के बाद उसी पेड़ से थोड़ी ही दूरी पर स्थित एक गुफ़ा के अंदर से कोई चमकती हुई चीज विश्वावसु का ध्यान अपनी ओर खींचती है। उत्सुकतावश विश्वावसु गुफा के अंदर से आती रोशनी की ओर बढ़ने लगते हैं। वह जितना उस गुफा के पास जाते, अंदर से आने वाली रोशनी और अधिक उज्जवल होने लगती। इस तरह उस रोशनी का पीछा करते करते आखिरकार वह गुफा के अंदर प्रवेश कर जाते हैं।
गुफ़ा के अंदर घुसते ही विश्वावसु के मन को मानो अपने आप ही सुकून मिलने लगता है, एक अद्भुत सी शांति विराजमान थी उस गुफ़ा के भीतर। थोड़ी ही देर पहले इस वन से बाहर निकलने के लिए व्याकुल निषाद राज का मन अब न जाने क्यों इसी गुफ़ा में हमेशा के लिए रह जाने को कर रहा था। बहरहाल अपनी जिज्ञासा मिटाने के लिए विश्वावसु अब जहां से रोशनी आ रही थी, उसी दिशा में गुफा के और अंदर चले जाते हैं।
उस अति उज्ज्वल आलोक के निकट पहुँच कर मानो विश्वावसु के पैरों तले जमीन ही खिसक जाती है। जैसे कि कोई प्रेत देख लिया हो, उसी के डर से अब वह कांपने लगते हैं। उनकी आंखों के सामने अब जो सब हो रहा था, वह सच नहीं हो सकता, भला कैसे कोई मूर्ति जीवित हो सकती है?
"क्या यह मेरा वहम है या फिर किसी दुष्ट असुर की माया?" डर के मारे पसीने से लथपथ विश्वावसु अब खुद से यही सवाल पूछ रहे थे। क्योंकि जो कुछ भी उनकी आंखों के सामने घट रहा था, उस पर विश्वास करना उनके लिए भी असंभव था।
विश्वावसु के सामने एक गहरे नीले रंग की मूर्ति रखी हुई थी जिससे लगातार तेज रोशनी निकल रही थी। हैरान कर देने वाली बात यह थी, की उस मूर्ति की आंखें खुली हुई थीं और किसी जीवित मनुष्य के भाँति उसकी पुतलियां भी जीवित थी। रह रह कर वह मूर्ति विश्वावसु को देख कर मंद मंद हंस भी रही थी। यदि कोई साधारण मनुष्य होता तो यह सब देखकर शायद भय से उसके प्राण ही निकल जाते, लेक़िन निषाद राज ने हिम्मत नहीं हारी, अपने अंदर शेष बचे सारे साहस को एकजुट कर वह मूर्ति की ओर देख रहे थे।
"कौन हो तुम? क्या चाहते हो? मुझे क्यों अपनी माया का शिकार बना रहे हो?" विश्वावसु ने उस मायावी मूर्ति से प्रश्न किया।
बिना उत्तर दिए ही वह मूर्ति केवल मंद मंद मुस्कान कर रही थी। जिसे देख कर विश्वावसु और आतंकित हो रहे थे।
"मुझे पता है तुम ही मुझे यहाँ लाये हो। अब लाये हो तो बताते क्यों नहीं क्या चाहिए मुझ से? यदि मेरे प्राण लेने हैं तो ले लो और ख़त्म करो। यह क्या बेकार ही मुस्कुरा रहे हो?" गले में डर के मारे दबी हुई आवाज़ में विश्वावसु ने फिर मूर्ति से सवाल किया ।
"हा हा हा... इतनी जल्दी मुझे भूल गए सबर नरेश! मैं तो युगों युगों से तुम्हारे साथ ही हूँ।" मूर्ति ने बड़ी चपलता के साथ उत्तर दिया।
"मैं कुछ समझा नहीं, तुम और मेरे साथ?" आश्चर्यचकित होकर विश्वावसु ने पूछा।
"अभी स्मरण किये देता हूँ निषाद राज।" मूर्ति के ऐसे कहने के साथ ही अब उस गुफ़ा में वेद मंत्रोचारण की ध्वनि गूंजने लगी। सारे वातावरण में तुलसी और चंदन की सुगंध महकने लगी। विश्वावसु को अब ऐसा प्रतीत हो रहा था की मानो वह किसी हवन के पास खड़े हुए हों। धीरे धीरे उन्हें एक असाधारण चेतना का एहसास होता है और उनकी आंखों के सामने रामायण और महाभारत काल की घटनाएं चित्रित होने लगती हैं।
अब कोई संदेह नहीं था मन में। आंखों से खुशी के आंसू टपक रहे थे विश्वावसु के। इतने वर्षों बाद अपने प्रभु को स्वयं के सामने देख फूले नहीं समा रहे थे सबर राज। त्रेता में बाली, द्वापर में जारा और अब कलयुग में विश्वावसु बने इस महान विष्णु भक्त के सामने उसके आराध्य श्री हरि स्वयं नीलमाधव की मूर्ति बने खड़े थे।
"हे भगवन! अहोभाग्य मेरे जो मुझे इस जीवन में भी आपके चरणों की सेवा करने का पुनः अवसर मिला। मैं तो धन्य हो गया, केशव।" विश्वावसु ने नीलमाधव की ओर देखते हुए कहा।"
"जब तुमने बाण चलाकर द्वापर युग में मुझे मेरे नश्वर शरीर से मुक्ति दिलाई थी, तब मैंने कहा था कि तुम्ही आने वाले युग में मेरे आद्य सेवक बनोगे, ज़ारा। अब वह समय आ चुका है। इसी नीलकन्दर गुफ़ा में नीलमाधव के रूप में मैं अवतरित हुआ हूँ। कलयुग में जब अधर्म अपनी पराकाष्ठा पार कर जाएगा, तो हे विश्वावसु, मैं अपना कल्कि अवतार लूंगा। तब तक यही मेरा माधव रूप ही कल युग के सकल प्राणियों के लिए पूजनीय होगा।" यह कहकर भगवान नीलमाधव ने विश्वावसु को अपने धरावतरण का उद्देश्य समझया।
"हे भगवान, मैं तो आपका दास हूँ, जो प्रभु की इच्छा, वही होगा।" यह कहकर विश्वावसु भगवान नीलमाधव की सेवा में लग गए। इसी बीच बहुत दिन बीत चुके थे और विश्वावसु का परिवार उनके जीवित होने की आशा अब छोड़ चुका था। यहाँ तक कि कबीले में भी नए सरदार का चुनाव व नियुक्ति की जा चुकी थी।
भगवान नीलमाधव ने इन सब की सूचना विश्वावसु को दी और उनके बिना उनके परिवार का क्या हाल हो रहा है वह भी बताया। राजा और पिता के तौर पर अपने कर्तव्य के प्रति सचेत रहते हुए ही वह भगवान की सच्ची सेवा कर सकते हैं यह कहकर भगवान नीलमाधव ने उन्हें गुफ़ा से जाने की आज्ञा दी। जाते हुए यह निर्देश भी दिया कि यहां आने की अनुमति केवल विश्वावसु को ही है और जबतक वह न चाहें, विश्वावसु इस नीलकन्दर गुफ़ा के बारेमें किसी को कुछ भी नहीं बताएंगे।
सबर नगरी की सीमा में घुसते ही लोग अचंभे में विश्वावसु को देख रहे थे, चूंकि उन्हें लगा कि वह मर चुके थे। उनका परिवार अब विश्वावसु को देखकर ख़ुशी से झूम उठा। इस जन्म में अपने पिता से पुनः मिलने की उम्मीद खो चुकी विश्वावसु की पुत्री ललिता में मानो फिर से जीवन का संचार हो गया था। विश्वावसु के वापस लौटते ही उन्हें पुनः राजा बना दिया गया। अब राज्य भार संभालने के साथ साथ वह रोज ही नीलकन्दर गुफ़ा में जाकर भगवान नीलमाधव की सेवा भी करते।
धीरे धीरे नीलकन्दर पर्वत पर विश्वावसु का रोज जाना प्रजा में संदेह का कारण बन गया। रानी व राजकुमारी ललिता भी अपने पिता के इस अद्भुत व्यवहार का कारण जानना चाहती थीं। परन्तु विश्वावसु तो वचनबद्ध थे, किसी को भी भगवान के बारे में नहीं बता सकते थे। मगर एक दिन उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने अपने परिवार और प्रजा को भगवान नीलमाधव की उपस्थिति के बारे में सब कुछ बता दिया। लेकिन अभी भी वह अपने पहले वचन पर अड़िग थे, कि उनके अलावा और कोई भी भगवान के दर्शन नहीं कर सकता। अतएव कितना कहने पर भी राजा ने किसीको नीलकन्दर गुफ़ा तक पहुंचने का रास्ता नहीं बताया। इसी बीच बहुत वर्ष बीत गए।
अवन्ति राज्य में एक परम विष्णुभक्त महाराज इन्द्रद्युम्न ने सिंहासन आरोहण किया। वह अपने आराध्य के प्रति पूरी तरह समर्पित थे और किसी भी तरह से श्रीहरि के साक्षात दर्शन पाने की मनोकामना रखते थे। एक कान से दुसरे कान तक फैलते फैलते अब नीलकन्दर गुफ़ा की कहानी राजा इन्द्रद्युम्न तक भी पहुंच गई। जब उन्हें पता चला की श्रीहरि विष्णु पूर्णतः जीवित रूप में वहां पर निवास कर रहे हैं, तो उनसे अब रहा नहीं गया। वह नीलमाधव के दर्शन करने को अब व्याकुल हो उठे।
अपने मंत्री विद्यापति को बुलाकर वह उनसे सलाह करने लगे। विद्यापति को भी नीलकन्दर गुफ़ा की कहानी पता थी, वह जानते थे कि सबर राज विश्वावसु के अतिरिक्त वहां का रास्ता किसी और को नहीं पता तथा वहां पर किसी और का प्रवेश भी वर्जित है। ऐसे में नीलकन्दर तक पहुँचना असंभव था। अतएव उन्होंने इन्द्रद्युम्न को इस इच्छा का त्याग करने का परामर्श दिया। परंतु इन्द्रद्युम्न नहीं माने, उनकी ज़िद के सामने विद्यापति को हार माननी पड़ी। अंततः विद्यापति ने राजा से उन्हें पहले भेजने के लिए कहा, ताकि वह गुफ़ा की खोज कर वापस आ सकें और फिर राजा को दर्शन करवा सकें। इन्द्रद्युम्न को यह सुझाव बहुत पसंद आया और उन्हीने तुरंत ही विद्यापति को उत्कल राज्य भेज दिया।
उत्कल देश में पहुंच कर विद्यापति, विश्वावसु की नगरी की ओर जाने लगे। वह बस सबर नगरी पहुँचने ही वाले थे कि, उन्हें अकेला पाकर लुटेरों ने उनपर आक्रमण कर दिया। यद्यपि विद्यापति एक शूरवीर तथा तलवार चलाने में निपुण योद्धा थे, परंतु संख्या बल के आगे उन्हें अपनी हार माननी पड़ी। लुटेरों ने उनका सारा धन,अस्त्र-शस्त्र, आभूषण तथा उनके अश्व को भी लूट लिया तथा उन्हें बुरी तरह से आहत कर रास्ते पर ही छोड़ दिया। शायद उनकी मृत्यु का समय निकट है, यह सोचकर विद्यापति बेहोश हो जाते हैं। उनकी नींद अगले दिन किसीकी कुटिया में खुलती है।
"अवश्य ही भगवान नीलमाधव की कृपा है आप पर, जो मैं वहाँ ठीक समय पर पहुंच गई। अन्यथा न जाने क्या होता !" किसी स्त्री की सुमधुर आवाज़ अब विद्यापति के कानों को तृप्त कर रही थी।
"कौन हो आप, और मैं यहां कैसे आया ?" दर्द से भारी सिर को पकड़े हुए विद्यापति ने पूछा।
"मैं ललिता हूँ, सबर राज विश्वावसु की पुत्री। कल आप अचेत अवस्था में मुझे नगरी के बाहर मिले थे, पूरी रात वैद्यों ने आपका उपचार किया है, तभी आप का जीवन बच पाया। अभी आप हमारे निवास में हैं। चिंता मत कीजिये, यहां आपके प्राण पूरी तरह से सुरक्षित हैं।" अपना परिचय देते हुए ललिता ने कहा।
जिस वस्तु को खोजते खोजते वह अवंति से यहाँ तक आये थे, वह निश्चित ही उन्हें मिलने वाली है, ऐसा अब विद्यापति को लगने लगा था। विश्वावसु की पुत्री द्वारा ही उनको बचाया जाना अवश्य ही विधि निर्देशित था, अन्यथा ललिता का वहां पर होना केवल एक संयोग नहीं हो सकता। उन्हीने मन ही मन नीलमाधव के लिए अपने हांथ जोड़ दिए।
अब ललिता की सेवा से धीरे धीरे विद्यापति ठीक होने लगते हैं। इसी बीच दोनों एक दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं और विवाह करने का निर्णय लेते हैं। विश्वावसु भी ललिता के प्रेम को स्वीकृति दे देते हैं और दोनों विवाह कर लेते हैं। विवाह के पश्चात विद्यापति भी सबर नगरी में ही रहने लगते हैं और हर दिन नीलकन्दर पहुंचने के रास्ते को खोजने लगते हैं। कई बार तो वह छुप छुप के विश्वावसु का पीछा भी करते, परंतु वन में थोड़ी दूर जाते ही विश्वावसु मानो अदृश्य हो जाते। अंत में यह बात विद्यापति को भली भांति समझ आ गयी कि विश्वावसु की सहायता के बिना नीलमाधव के दर्शन करना असंभव है।
विश्वावसु को मनाना आसान नहीं है, यह सोच कर उन्होंने अपनी प्रियतमा पत्नी ललिता की सहायता मांगी। विद्यापति को यह आशा थी कि यदि ललिता खुद अपने पिता से विद्यापति के लिए प्रार्थना करेगी तो शायद वह मान जाएंगे। पहले तो ललिता ने भी अपने पति की इस इच्छा को अनुचित समझा, लेकिन विद्यापति का नीलमाधव को देखने की जिद के आगे उन्होंने हार मान ली और अपने पिता से विद्यापति के इच्छा की पेशकश की। यद्यपि भगवान की आज्ञा की अवहेलना करना उन्हें गंवारा नहीं था, लेकिन विश्वावसु भी पुत्री मोह के सामने एक बार के लिए दुर्बल पड़ गए।
"ठीक है। मैं तुम्हें केवल और केवल एक बार के लिए भगवान नीलमाधव के दर्शन करवा सकता हूँ । लेकिन मेरी एक शर्त है। शर्त के अनुसार तुम्हें पूरे रास्ते अपनी आंखों पर पट्टी बांध कर ही चलना होगा और मेरे कहने से पहले तुम अपनी आंखों की पट्टी नहीं उतारोगे।" विश्वावसु अवश्य ही नीलकन्दर की अवस्थिति गुप्त रखना चाहते हैं यह समझ कर विद्यापति ने उनकी शर्त में हां भर दी।
अगले दिन सूर्योदय से पहले ही दोनों नीलकन्दर की ओर निकल पड़े। चूंकि आंखों पर पट्टी बंधी होने के कारण वह रास्ता देख नहीं सकते थे, इसीलिए विद्यापति अपने साथ एक थैली में सरसों के कुछ बीज ले आये थे। उन्ही बीजों को वह विश्वावसू की नज़रों से बचाते हुए पूरे मार्ग पर बिछाते जा रहे थे। जैसे जैसे नीलकन्दर निकट आ रहा था, आंखों पर पट्टी बंधे होने के बाद भी विद्यापति को इसका एहसास हो रहा था। न जाने अब कहाँ से एक अलौकिक शांति उनके हृदय में खेलने लगी थी।
जब आंखों पर से पट्टी उतरी तो नीलमाधव के सामने उपस्थित होकर विद्यापति को भी वैसा ही एहसास हो रहा था जैसा पहली बार विश्वावसु को हुआ था। पूरी तरह से सचेत, एक जीवित मूर्ति को देख वह अचंभे में थे। भगवान के उद्देश्य में विद्यापति ने हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और श्रीहरि के इस अत्यंत निराले रूप को देख कर वह भी भक्ति से गद गद हो उठे। विश्वावसु ने अपनी पूजा समाप्त करने के बाद वैसे ही आंखों पर पट्टी बांध कर अपने दामाद को नीलकन्दर से वापस ले आये।
वापस आते ही अपने राजा इन्द्रद्युम्न को नीलमाधव को देखने की कहानी बताने के लिए विद्यापति व्याकुल हो उठे। अतएव उन्होंने ललिता से विदा लेकर कुछ दिनों के लिए अपने राज्य वापस जाने की इच्छा व्यक्त की। हालांकि उन्होंने विश्वावसु को गोपनीयता का वचन दिया था, परंतु न चाहते हुए भी उन्हें वह वचन तोड़ना पड़ेगा, इस बात से विद्यापति थोडे दुःखी भी थे।
अब अवंति राज्य पहुंच कर विद्यापति ने इन्द्रद्युम्न को सारा वृतांत सुनाया। खुशी के मारे उत्साहित राजा अब एक क्षण की और देरी नहीं करना चाहते थे। अपने सैनिकों को उन्होंने तुरंत नीलकन्दर की ओर कूच करने का निर्देश दिया। विद्यापति के साथ घोड़े पर बैठ कर राजा उस वन के निकट पहुंचे जिसके भीतर नीलमाधव का निवास था। जिस मार्ग पर विद्यापति ने सरसों के बीज बिछाए थे, वहां पर अब सरसों के पौधे उग चुके थे। रास्ता पहचानने में अब विद्यापति के द्वारा की गई यही बुद्धिमता काम आने वाली थी। राजा और सारे सैनिक उन पौधों के द्वारा बनाई गई पगडंडी का अनुसरण करते करते नीलकन्दर गुफ़ा के अंदर पहुंचे।
परंतु यह क्या, न ही अब वहां कोई दिव्य रोशनी थी, और न ही तुलसी चंदन की सुगंध। वह गुफ़ा तो अन्य किसी भी सामान्य गुफ़ा की तरह ही उजाड़ पड़ी हुई थी। राजा को यह देखकर बहुत दुःख हुआ और नीलमाधव की इच्छा के विरुद्ध उनके दर्शन करने की अपनी लालसा के चलते वह खुद का तिरस्कार करने लगे। नीचे भूमि में गिर कर किसी बच्चे की तरह हाथ पैर मार कर वह रोने लगे और अपनी मूर्खता को कोशने लगे।
"हे त्रिलोक पिता, मुझ से एक बहुत बड़ी भुल हो गयी, आपकी आज्ञा न होने के बाद भी मैंने आपको देखने की धृष्ठता करनी चाही। इस कार्य में मैंने सबर राज विश्वावसु को भी धोखा दिया। मुझे जीने का कोई अधिकार नहीं है भगवन, कोई अधिकार नहीं..." राजा अब किसी पागल की तरह अपना सिर पीट रहे थे।
उसी समय रोज की तरह पूजा करने के लिए विश्वावसु भी वहां पहुंच जाते हैं। राजा और अन्य पार्षदों के साथ विद्यापति को गुफ़ा के अंदर देख कर उन्हें पूरी घटना का अंदाजा हो जाता है। वह भी अब राजा के भांति ही भगवान नीलमाधव के चले जाने से अत्यंत दुःखी हो जाते हैं।
इस समय एक घोर गर्जना के साथ आकाशवाणी होती है।
" मेरे आने और जाने का समय में स्वयं तय करता हूँ। नीलकन्दर में मेरा प्रकट होना तथा यहाँ से अदृश्य हो जाना भी मेरे द्वारा ही निर्धारित है। विश्वावसु, इन्द्रद्युम्न, तुम अपने अपने राज्य लौट जाओ, उचित समय आने पर मैं स्वयं ही तुम्हें सूचित करूँगा।"
यह आकाशवाणी सुनने के पश्चात अब किसी के भी मन में कोई संदेह नहीं था। राजा इन्द्रद्युम्न के साथ अवंति प्रदेश वापस लौटते समय विद्यापति ललिता को भी अपने साथ ले आये। वहीं अपनी बेटी और दामाद को विदा करने के बाद विश्वावसु अपने राजकार्य में मन लगाने लगे। वे सभी श्री हरि विष्णु की आज्ञानुसार अपने अपने राज्यों में लौटकर आने वाले समय की प्रतीक्षा करने लगे।
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